दास्तां हम जो अपनी सुनाने लगे,
लोग हम से निगाहें चुराने लगे,
ये मेरी साफगोई है मेरा कसूर
ये समझने में हमको ज़माने लगे,
बोझ दुश्वारियों का बढ़ा इस कदर,
आदतन अपना सर हम झुकाने लगे,
तेरी रुसवाई के डर से चुप हम रहे,
लोग हम पे ही ऊँगली उठाने लगे,
आईने मेरे घर के भी हैरान है,
अपनी सूरत हम उनसे छिपाने लगे,
दर्द दिल में छुपाया तो मुफलिस रहे,
कागजों पे बहा तो कमाने लगे,
तेरी यादों के दानों को चुग चुग के हम,
पंछियों की तरह चहचहाने लगे …