और सोचता है क्या लेटने के लिए गर्म बिछौना होगा अन्दर,
क्या उसकी उम्मीदें समेट सकेगी पलकों की नन्ही चादर,
आदत है इस ख्वाब को फैल कर के सोने की ,
खुल कर के हंसने की , खुल कर के रोने की,
कहीं ऐसा ना हो कि आंख की मुट्ठी खुल जाए,
और आंसू के पानी से रंग इसके धुल जाएँ,
वो ख्वाब रात भर ख़ामोशी से पकना चाहता है,
वो मुक्तसर से हर लम्हे को चखना चाहता है,
इल्म है धूप उसके जिस्म में ज़ख़्म कर देगी,
जागेगी जब सुबह तो इसे ख़तम कर देगी,
मुझे तुनक मिजाज़ नींद के रूठने का डर है
,
ख्वाब के बीतने का नहीं,इसके टूटने का डर है....
ख्वाब के बीतने का नहीं,इसके टूटने का डर है....
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