ना स्वर की आई थी समझ और न शब्दों का ज्ञान था,
फ़िर भी माँ कह पाना तुझको माँ कितना आसान था,
मिश्री में घुली लोरी सुन जब नींद मुझे आ जाती थी,
सुंदर से सपने तुम मेरे तकिये पे रख जाती थी,
मेरी ऑंखें देख के मन की बातें तुम बुन लेती थी ,
मेरी खामोशी को जाने तुम कैसे सुन लेती थी,
मेरी नन्ही उंगली तेरी मुट्ठी मे छिप जाती थी,
कितनी हिम्मत तब मेरे इन क़दमों को मिल जाती थी,
चोट मुझे लगती थी लेकिन दर्द तो तुम ही सहती थी,
मेरी आँखों की पीड़ा तेरी आँखों से बहती थी,
तेरे आँचल मे छुपने को मन सौ बार मचलता है,
माँ तेरी गोदी में अब भी मेरा बचपन पलता है
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2 comments:
aaj se pehle maa par mujhe sirf do panktiyan hi acchi lagti thi wo thi...
apna roop dikhau sabko jab ishwar k man me aya ....
maa tab usne tujhe banaya...
par apki kavita padhkar .... kya kahu shabd nahi mere paas...
antim do panktiyan to dil ko choo gayi... thanks for such a nice creation
very touching..
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