Saturday, November 29, 2008

लश्कर ...

दहशतों का शोर कुछ देर ज़रा बंद करो,

सुनाई देती नही दिल की अब पुकार मुझे ,

खामोश निगाहों की जुबान को ज़रा पढ़ के देखो,

किसी बगावत के नज़र आते हैं आसार मुझे,

ज़ुल्म के दौर में रहम की अब उम्मीद कहाँ,

अब तो वहशतों का रहता है इंतज़ार मुझे,

मंदिरों मस्जिदों में भी भीड़ नही दिखती देती ,

वो खुदा भी नज़र आता है लाचार मुझे,

नफरतों ने दिलो पे जा के फतह कर ली है,

प्यार की ताक़त पे नही रहा अब ऐतबार मुझे,

अमन की कीमतें लहू से चुकानी होगी,

नही मंज़ूर कोई ऐसा अब करार मुझे ,

जज्बो की बारूद और असलहे हो लफ्जों के,

इन्ही से करना है लश्कर कोई तैयार मुझे

3 comments:

Inexplicable Quest said...

Its awsm........wow wad an attempt..... heart touching.....

commendable!

Unknown said...

Shekher sir, It's really too good...I read it and had tears in my eyes:)SIr, u rock as always:)

SHEKHAR said...

thanks Kanika