बड़े ज़ाहिर तरीके से ये बातों को छुपाती है,
मेरी बेताबियाँ मुझ को नए करतब सिखाती हैं,
मैं अपने जिस्म के भीतर बगावत किस तरह झेलूं,
जुबां खामोश रहती है तो ख्वहिश तिलमिलाती है,
मेरी नींदों ने मेरी आशिकी के राज़ खोले हैं,
जो तू ख्वाबों में आती है तो पलकें मुस्कुराती हैं,
ये ऑंखें झुकती हैं अक्सर उस रब की इबादत में,
जो खुलती हैं हैं तो ये खुद को तेरे नज़दीक पाती हैं,
बड़ी नक्काशियां करती है मेरी ये कलम देखो,
की कागज़ पे ये लफ़्ज़ों से तेरी सूरत बनाती है
मेरी हर शायरी में ज़िक्र तेरा होता है क्यूँ हरदम,
तेरी मौजूदगी ही तो इसे काबिल बनाती है,
Sunday, April 11, 2010
Thursday, April 1, 2010
अब आ जाओ
हम को तो तेरे ख्वाबों से हो जाएगी तस्सली ,
इक रात तुम मुझको सुलाने के लिए आ जाओ,
सुनते हैं तेरी निग़ाह में है ठंडी सी एक तपिश,
इक बार मुझे उस आग में जलाने के लिए आ जाओ,
रूठी हो तुम सौ बार तो तुम्हे सौ बार मनाया ,
इक बार मुझे तुम भी मनाने के लिए आ जाओ ,
दिखते है निशां तेरे अब तक सागर के किनारे,
इक बार उन्हें बन के लहर मिटाने के लिए आ जाओ
इक रात तुम मुझको सुलाने के लिए आ जाओ,
सुनते हैं तेरी निग़ाह में है ठंडी सी एक तपिश,
इक बार मुझे उस आग में जलाने के लिए आ जाओ,
रूठी हो तुम सौ बार तो तुम्हे सौ बार मनाया ,
इक बार मुझे तुम भी मनाने के लिए आ जाओ ,
दिखते है निशां तेरे अब तक सागर के किनारे,
इक बार उन्हें बन के लहर मिटाने के लिए आ जाओ
यूँ ही...
यूँ तो मुझे तुमसे कोई नाराज़गी नहीं,
पर अब इन वफाओं में वो ताजगी नहीं,
तन्हाई के इस शहर में आ के अच्छा -खासा बस गया हूँ
फितरत दीखते अब मेरी आवारगी नहीं,
इबादतों के तौर तरीके अब कुछ बदले से दिखते हैं,
अब उनमे सजदों की अदायगी नहीं
तुम को खोने की कसक भी अब थोड़ी सी कम हो गयी है,
रौनक है चेहरे पे बेचारगी नहीं,
ख्वाबों को अपने अब सुला दो और किसी की आँखों में तुम,
नींदों में अब मेरी वो दीवानगी नहीं,
पर अब इन वफाओं में वो ताजगी नहीं,
तन्हाई के इस शहर में आ के अच्छा -खासा बस गया हूँ
फितरत दीखते अब मेरी आवारगी नहीं,
इबादतों के तौर तरीके अब कुछ बदले से दिखते हैं,
अब उनमे सजदों की अदायगी नहीं
तुम को खोने की कसक भी अब थोड़ी सी कम हो गयी है,
रौनक है चेहरे पे बेचारगी नहीं,
ख्वाबों को अपने अब सुला दो और किसी की आँखों में तुम,
नींदों में अब मेरी वो दीवानगी नहीं,
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