बड़े ज़ाहिर तरीके से ये बातों को छुपाती है,
मेरी बेताबियाँ मुझ को नए करतब सिखाती हैं,
मैं अपने जिस्म के भीतर बगावत किस तरह झेलूं,
जुबां खामोश रहती है तो ख्वहिश तिलमिलाती है,
मेरी नींदों ने मेरी आशिकी के राज़ खोले हैं,
जो तू ख्वाबों में आती है तो पलकें मुस्कुराती हैं,
ये ऑंखें झुकती हैं अक्सर उस रब की इबादत में,
जो खुलती हैं हैं तो ये खुद को तेरे नज़दीक पाती हैं,
बड़ी नक्काशियां करती है मेरी ये कलम देखो,
की कागज़ पे ये लफ़्ज़ों से तेरी सूरत बनाती है
मेरी हर शायरी में ज़िक्र तेरा होता है क्यूँ हरदम,
तेरी मौजूदगी ही तो इसे काबिल बनाती है,
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4 comments:
मैं अपने जिस्म के भीतर बगावत किस तरह झेलूं,
जुबां खामोश रहती है तो ख्वहिश तिलमिलाती है,
वाह क्या बात है
Bahut Dhanyawad aapki prashansa ke liye...
bahut khubsurat, kitna doobkar likhte hain aap, aaah!! bahut khubsurat
thanks Vibha..for your kind words
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