Wednesday, July 23, 2008

सपने पकते हैं...

थक कर के उम्मीद कहीं सो जाती हैं,
खामोश सदायें शोर में खो जाती हैं,
हँसते हैं जब ग़म हमारी हालत पे,
खुशियाँ पलकों के पीछे रो जाती हैं,

भीगी आँखों से किसी की राह तकते हैं,
आंसुओं की गर्मी में ही सपने पकते हैं,

हौसले मौजों के जब साहिल पे रुकते हैं,
अंधेरों से डर कर के साए भी छुपते हैं,
जिन ज़ख्मों ने ओढी थी वक्त की चादर,
यादों के झोंके आने से वो भी दुखते हैं,

दिल से आँखों की तरफ़ कुछ ज़ख्म सरकते हैं,
आंसुओं की गर्मी में ही सपने पकते हैं,

ये दर्द आख़िर क्यूँ इतनी तकलीफें सहता है,
ख़ुद से ही सहमा सा चुप चाप रहता है,
झांकता है होठों से कभी आह ये बनकर,
या फ़िर बनकर इल्तिजा आँखों से बहता है,

लफ्ज़ इसको अपनाने में क्यूँ झिझकते हैं
आंसुओं की गर्मी में ही सपने पकते हैं,

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