Sunday, April 11, 2010

कहूँ या न कहूँ...

बड़े ज़ाहिर तरीके से ये बातों को छुपाती है,
मेरी बेताबियाँ मुझ को नए करतब सिखाती हैं,

मैं अपने जिस्म के भीतर बगावत किस तरह झेलूं,
जुबां खामोश रहती है तो ख्वहिश तिलमिलाती है,

मेरी नींदों ने मेरी आशिकी के राज़ खोले हैं,
जो तू ख्वाबों में आती है तो पलकें मुस्कुराती हैं,

ये ऑंखें झुकती हैं अक्सर उस रब की इबादत में,
जो खुलती हैं हैं तो ये खुद को तेरे नज़दीक पाती हैं,

बड़ी नक्काशियां करती है मेरी ये कलम देखो,
की कागज़ पे ये लफ़्ज़ों से तेरी सूरत बनाती है

मेरी हर शायरी में ज़िक्र तेरा होता है क्यूँ हरदम,
तेरी मौजूदगी ही तो इसे काबिल बनाती है,

Thursday, April 1, 2010

अब आ जाओ

हम को तो तेरे ख्वाबों से हो जाएगी तस्सली ,
इक रात तुम मुझको सुलाने के लिए आ जाओ,

सुनते हैं तेरी निग़ाह में है ठंडी सी एक तपिश,
इक बार मुझे उस आग में जलाने के लिए आ जाओ,

रूठी हो तुम सौ बार तो तुम्हे सौ बार मनाया ,
इक बार मुझे तुम भी मनाने के लिए आ जाओ ,

दिखते है निशां तेरे अब तक सागर के किनारे,
इक बार उन्हें बन के लहर मिटाने के लिए आ जाओ

यूँ ही...

यूँ तो मुझे तुमसे कोई नाराज़गी नहीं,
पर अब इन वफाओं में वो ताजगी नहीं,

तन्हाई के इस शहर में आ के अच्छा -खासा बस गया हूँ
फितरत दीखते अब मेरी आवारगी नहीं,

इबादतों के तौर तरीके अब कुछ बदले से दिखते हैं,
अब उनमे सजदों की अदायगी नहीं

तुम को खोने की कसक भी अब थोड़ी सी कम हो गयी है,
रौनक है चेहरे पे बेचारगी नहीं,

ख्वाबों को अपने अब सुला दो और किसी की आँखों में तुम,
नींदों में अब मेरी वो दीवानगी नहीं,

Friday, January 9, 2009

तुम.....

नींद भी तुम और रात भी तुम,

खामोशी और बात भी तुम,

सुबह की धुप और शाम का रूप,

तुम चारों पहर का करार हो,

तुम ही तो मेरा प्यार हो,

चैन भी तुम आराम भी तुम,

फुर्सत तुम और काम भी तुम,

मज़हब तुम और मकसद तुम,

दीवानगी हो जूनून हो,

तुम ही तो मेरा सुकून हो,

राह भी तुम और चाह भी तुम,

दर्द भी तुम और आह भी तुम,

मन्नत और मंसूबों में ,

तुम मुद्दत से शामिल हो,

तुम ही तो मेरी मंजिल हो,

मर्ज भी तुम और दवा भी तुम,

तुम खुशबू और सबा भी तुम,

तुम माहौल तुम मिजाज़,

तुम मुस्कुराते मौसम हो,

तुम ही मेरे हमदम हो,

तुम ही मन तुम ही तन,

तुम धड़कन और जीवन,

तुम रवायत, तुम चाहत,

तुम ही मेरी इबादत हो,

तुम ही मेरी आदत हो,

Saturday, November 29, 2008

लश्कर ...

दहशतों का शोर कुछ देर ज़रा बंद करो,

सुनाई देती नही दिल की अब पुकार मुझे ,

खामोश निगाहों की जुबान को ज़रा पढ़ के देखो,

किसी बगावत के नज़र आते हैं आसार मुझे,

ज़ुल्म के दौर में रहम की अब उम्मीद कहाँ,

अब तो वहशतों का रहता है इंतज़ार मुझे,

मंदिरों मस्जिदों में भी भीड़ नही दिखती देती ,

वो खुदा भी नज़र आता है लाचार मुझे,

नफरतों ने दिलो पे जा के फतह कर ली है,

प्यार की ताक़त पे नही रहा अब ऐतबार मुझे,

अमन की कीमतें लहू से चुकानी होगी,

नही मंज़ूर कोई ऐसा अब करार मुझे ,

जज्बो की बारूद और असलहे हो लफ्जों के,

इन्ही से करना है लश्कर कोई तैयार मुझे

Wednesday, October 1, 2008

कद्र कीजिये.....

बगैर मन्नतों की इबादत की कद्र कीजिये,

बेवजह याद करने की आदत की कद्र कीजिये,

बेखौफ चले आते हैं ये दिल से निकल कर,

थोड़ा तो इन लफ्जों की हिमाकत की कद्र कीजिये,

बरसों पुरानी होके भी ये महक रही हैं,

यादों की ताजगी की हिफाज़त की कद्र कीजिए,

ख्वाइश मुक्कमल हो जाए इतनी सी है ख्वाइश,

रवाएतो से इनकी बगावत की कद्र कीजिये,

दर्द मेरे सभी हैं अब आपके सुपुर्द,

ख़ुद ही आप अपनी अमानत की कद्र कीजिये,

जुदाई में ही मुमकिन था इस रिश्ते का वजूद,

कुछ तो इस रिश्ते की नजाकत की कद्र कीजिये,

Sunday, September 21, 2008

कोई ज़रूरी तो नही....

हर ग़म को अपने गले लगाना कोई ज़रूरी तो नही,

आँखों से आंसू पल पल गिराना कोई ज़रूरी तो नही,

दर्द हजारों रह सकते हैं इस दिल की आहों मे छुप कर,

चेहरे पे उनकी नुमाइश लगाना कोई ज़रूरी तो नही,

अपनी इबादतों पे यकीं करता हूँ मैं बस इतनी ख़बर है,

खुदा का मुझ पर मेहर लुटाना कोई ज़रूरी तो नही,

अपनी मंजिल का तो पता पूछ ही लूँगा अंधियारे से,

धुप का मेरी राह चमकाना कोई ज़रूरी तो नही,

वक़्त सहला के कर देता है सारे ज़ख्मों का इलाज,

बातों का उनपे मरहम लगाना कोई ज़रूरी तो नही,

हकीकतों की ज़मीं पे गहरी नींद सो लेता हूँ मैं ,

ख्वाबों की इसपे चादर बिछाना कोई ज़रूरी तो नही,

उम्र के इस मुकाम पे जो खुदगर्ज़ हो चले हैं,

उन रिश्तों का बोझ उठाना कोई ज़रूरी तो नही,