Tuesday, August 17, 2010

फिर लौट के तू आ जाएगी...

हर रोज़ मैं अपनी यादों से तेरे दिल पे लकीरें खींचूंगा,
हर रात मैं अपने सपनो से तेरी नींदों को सीचूंगा,
ये डोर है कच्चे धागों की,ये बिन जोड़े जुड़ जाएगी,
तुम बात कोई भी छेडोगी,वो मेरी तरफ मुड जायेगी...
फिर लौट के तू आ जाएगी...

जब बारिश की गुमसुम बूंदे इक सूनापन बरसाएंगी,
जब सावन की वो ख़ामोशी तेरे लफ़्ज़ों को तरसायेंगी,
तब धूप मेरी आवाजों की तेरे मन पे कुछ लिख जाएगी,
और मौसम की बदली रंगत तेरी सूरत पे दिख जाएगी...
फिर लौट के तू जाएगी...

बीते लम्हों की महफ़िल में तुम जाकर मुझको ढूँढोगी
मुझको आंखों में छुपा लोगी और पलकें अपनी मून्दोगी,
जब मेरे ख्यालों की ख्श्बू तेरी साँसों को महकाएगी,
तब मेरे गीतों की सरगम तेरे होठों पे सज जायेगी......
फिर लौट के तू जाएगी...

Monday, May 17, 2010

समय की सीढ़ी

रोज़ सुबह की आँखों में इक नयी कहानी पढता हूँ,
मै सपनों का हाथ पकड़ कर समय की सीढ़ी चढ़ता हूँ

हवा की लट में फूल घूंध कर मौसम को महकाता हूँ
मै बारिश में रंग घोल कर आशाएं बरसाता हूँ
सागर की इन लहरों में बीते नयी हिलोरें भरता हूँ
मैं सूरज की किरणें अपने हाथों से चमकाता हूँ

मैं चमकीली धुप गला कर धरा के गहने गढता हूँ
मैं सपनो का हाथ पकड़ कर समय की सीढ़ी चढ़ता हूँ,

चलते चलते उम्मीदों को लगता है आघात कोई,
जब जीवन में हो जाती है अनहोनी सी बात कोई,
आशंका का गहरा तम जब नभ पर छा सा जाता है,
नींद से लड़ने आ जाती है लम्बी सी जब रात कोई,

तब प्रकाश का परचम ले कर अंधकार से लड़ता हूँ,
मै सपनो का हाथ पकड़ कर समय की सीढ़ी चढ़ता हूँ,

बीते पल की याद कभी और अगले पल की आस कभी,
ये सब छोड़ो और सोचो कि क्या है अपने पास अभी,
कभी निराशा के बादल घिर आयें सभी दिशाओं से
विचलित ना होने पाए इस मन का ये विश्वास कभी

वर्तमान के उन्नत पथ पर यूँ ही निरंतर बढ़ता हूँ,
मै सपनो का हाथ पकड़ कर समय की सीढ़ी चढ़ता हूँ,

Sunday, April 11, 2010

कहूँ या न कहूँ...

बड़े ज़ाहिर तरीके से ये बातों को छुपाती है,
मेरी बेताबियाँ मुझ को नए करतब सिखाती हैं,

मैं अपने जिस्म के भीतर बगावत किस तरह झेलूं,
जुबां खामोश रहती है तो ख्वहिश तिलमिलाती है,

मेरी नींदों ने मेरी आशिकी के राज़ खोले हैं,
जो तू ख्वाबों में आती है तो पलकें मुस्कुराती हैं,

ये ऑंखें झुकती हैं अक्सर उस रब की इबादत में,
जो खुलती हैं हैं तो ये खुद को तेरे नज़दीक पाती हैं,

बड़ी नक्काशियां करती है मेरी ये कलम देखो,
की कागज़ पे ये लफ़्ज़ों से तेरी सूरत बनाती है

मेरी हर शायरी में ज़िक्र तेरा होता है क्यूँ हरदम,
तेरी मौजूदगी ही तो इसे काबिल बनाती है,

Thursday, April 1, 2010

अब आ जाओ

हम को तो तेरे ख्वाबों से हो जाएगी तस्सली ,
इक रात तुम मुझको सुलाने के लिए आ जाओ,

सुनते हैं तेरी निग़ाह में है ठंडी सी एक तपिश,
इक बार मुझे उस आग में जलाने के लिए आ जाओ,

रूठी हो तुम सौ बार तो तुम्हे सौ बार मनाया ,
इक बार मुझे तुम भी मनाने के लिए आ जाओ ,

दिखते है निशां तेरे अब तक सागर के किनारे,
इक बार उन्हें बन के लहर मिटाने के लिए आ जाओ

यूँ ही...

यूँ तो मुझे तुमसे कोई नाराज़गी नहीं,
पर अब इन वफाओं में वो ताजगी नहीं,

तन्हाई के इस शहर में आ के अच्छा -खासा बस गया हूँ
फितरत दीखते अब मेरी आवारगी नहीं,

इबादतों के तौर तरीके अब कुछ बदले से दिखते हैं,
अब उनमे सजदों की अदायगी नहीं

तुम को खोने की कसक भी अब थोड़ी सी कम हो गयी है,
रौनक है चेहरे पे बेचारगी नहीं,

ख्वाबों को अपने अब सुला दो और किसी की आँखों में तुम,
नींदों में अब मेरी वो दीवानगी नहीं,

Friday, January 9, 2009

तुम.....

नींद भी तुम और रात भी तुम,

खामोशी और बात भी तुम,

सुबह की धुप और शाम का रूप,

तुम चारों पहर का करार हो,

तुम ही तो मेरा प्यार हो,

चैन भी तुम आराम भी तुम,

फुर्सत तुम और काम भी तुम,

मज़हब तुम और मकसद तुम,

दीवानगी हो जूनून हो,

तुम ही तो मेरा सुकून हो,

राह भी तुम और चाह भी तुम,

दर्द भी तुम और आह भी तुम,

मन्नत और मंसूबों में ,

तुम मुद्दत से शामिल हो,

तुम ही तो मेरी मंजिल हो,

मर्ज भी तुम और दवा भी तुम,

तुम खुशबू और सबा भी तुम,

तुम माहौल तुम मिजाज़,

तुम मुस्कुराते मौसम हो,

तुम ही मेरे हमदम हो,

तुम ही मन तुम ही तन,

तुम धड़कन और जीवन,

तुम रवायत, तुम चाहत,

तुम ही मेरी इबादत हो,

तुम ही मेरी आदत हो,

Saturday, November 29, 2008

लश्कर ...

दहशतों का शोर कुछ देर ज़रा बंद करो,

सुनाई देती नही दिल की अब पुकार मुझे ,

खामोश निगाहों की जुबान को ज़रा पढ़ के देखो,

किसी बगावत के नज़र आते हैं आसार मुझे,

ज़ुल्म के दौर में रहम की अब उम्मीद कहाँ,

अब तो वहशतों का रहता है इंतज़ार मुझे,

मंदिरों मस्जिदों में भी भीड़ नही दिखती देती ,

वो खुदा भी नज़र आता है लाचार मुझे,

नफरतों ने दिलो पे जा के फतह कर ली है,

प्यार की ताक़त पे नही रहा अब ऐतबार मुझे,

अमन की कीमतें लहू से चुकानी होगी,

नही मंज़ूर कोई ऐसा अब करार मुझे ,

जज्बो की बारूद और असलहे हो लफ्जों के,

इन्ही से करना है लश्कर कोई तैयार मुझे