कर्जों की आशनाई मे हालात ये हुए ,
होठों पे अब हंसी भी बस उधार की खिलती है;
नुक्कड़ के दर्जी मेरे सब दोस्त बन गए,
कि इज्ज़त फटी हुई उसी दुकान पे सिलती है;
नज़र आती हैं आपको जो बुलंद इमारतें,
तंगी के ज़लज़लों से उनकी बुनियादें हिलती हैं;
पैबंद लगी जेब मेरी शर्मिंदा सी रहती है,
ज़माने की तल्खियों से उसकी खवाहिशें छिलती हैं
लगती है घर पे मेरे महफिल मुफलिसी की,
जितनी चाहे ले लो ख़ुशी मुफ्त मे मिलती है;
Sunday, January 13, 2008
Tuesday, January 8, 2008
तेरी मुस्कानों कि खातिर......
तेरी मुस्कानों कि खातिर इतना तो किया जा सकता है,
चहरे से छलकता दर्द तेरा हाथों मे लिया जा सकता है;
बातों के कच्चे धागों से ये ज़ख्म कहाँ भर पायेंगे,
कुछ ज़ख्मों को बस प्यार भरी नज़रों से सिया जा सकता है;
है बात बड़ी शाइस्ता सी , तुम इसको खता मत कह देना,
रुखसार पे बिखरे अश्कों को होठों से पिया जा सकता है;
मसरूफ हूँ अपनी उलझन मे पर इतना भी खुदगर्ज़ नही,
तेरी तन्हाई को इक लम्हा फुरसत का दिया जा सकता है;
अपने ख्वाबों के साथ मेरी आँखों मे बसने आ जाओ,
तुम को शायद मालूम नही ऐसे भी जिया जा सकता है
चहरे से छलकता दर्द तेरा हाथों मे लिया जा सकता है;
बातों के कच्चे धागों से ये ज़ख्म कहाँ भर पायेंगे,
कुछ ज़ख्मों को बस प्यार भरी नज़रों से सिया जा सकता है;
है बात बड़ी शाइस्ता सी , तुम इसको खता मत कह देना,
रुखसार पे बिखरे अश्कों को होठों से पिया जा सकता है;
मसरूफ हूँ अपनी उलझन मे पर इतना भी खुदगर्ज़ नही,
तेरी तन्हाई को इक लम्हा फुरसत का दिया जा सकता है;
अपने ख्वाबों के साथ मेरी आँखों मे बसने आ जाओ,
तुम को शायद मालूम नही ऐसे भी जिया जा सकता है
दर्द झांकता है...
ज़िंदगी से थकी हुई आँखों को मींच कर,
दर्द की शाखों को आंसुओं से सींच कर,
रोज़ रात, रात को, रात भर जागता है,
पलकों से भीगा हुआ दर्द झांकता है;
यादों की गठरी मे मुस्काने समेट के,
ख्वाबों कि चादर मे ग़म को लपेट के,
वक़्त की खूँटी पे तकदीर टागता है,
भीतर से बिखरा हुआ दर्द झांकता है;
मायूसी को हौसले के खिलोने से बेहलाकर,
बेबसी के हाथों को बाज़ार मे फैला कर,
ज़ख्मों को सहलाने की भीख मांगता है
जिस्म से छिला हुआ दर्द झांकता है;
दर्द की शाखों को आंसुओं से सींच कर,
रोज़ रात, रात को, रात भर जागता है,
पलकों से भीगा हुआ दर्द झांकता है;
यादों की गठरी मे मुस्काने समेट के,
ख्वाबों कि चादर मे ग़म को लपेट के,
वक़्त की खूँटी पे तकदीर टागता है,
भीतर से बिखरा हुआ दर्द झांकता है;
मायूसी को हौसले के खिलोने से बेहलाकर,
बेबसी के हाथों को बाज़ार मे फैला कर,
ज़ख्मों को सहलाने की भीख मांगता है
जिस्म से छिला हुआ दर्द झांकता है;
ख्वाइश दिल मे .....
ख्वाइश दिल मे बहुत रह चुकी अब तो जुबान तक पहुंचे,
कह दो उम्मीदों से अब वो आसमान तक पहुंचे;
मैं निकल पड़ा हूँ खुद के भरोसे अब अपनी मंजिल की तरफ,
किस्मत का यकीं कहाँ कब मेरे मकान तक पहुंचे;
दम तोड़ते हैं हौसले दो चार कदम चल के,
कामयाबी पहुंची उन तक जो इम्तेहान तक पहुंचे;
उगते हैं अरमानों के पंख दिल के मैदानों मे,
नादाँ है जो उन्हें खरीदने किसी दुकान तक पहुंचे;
ले चलें बुलंदियों तक इसे कि इस का ये हक है,
इस से पहले ये ज़िंदगी अपनी ढलान तक पहुंचे;
खुदा कि रहमत तब होगी जब खुद से ज़हमत होगी ,
उस को कहाँ फुरसत कि वो हर इंसान तक पहुंचे;
कह दो उम्मीदों से अब वो आसमान तक पहुंचे;
मैं निकल पड़ा हूँ खुद के भरोसे अब अपनी मंजिल की तरफ,
किस्मत का यकीं कहाँ कब मेरे मकान तक पहुंचे;
दम तोड़ते हैं हौसले दो चार कदम चल के,
कामयाबी पहुंची उन तक जो इम्तेहान तक पहुंचे;
उगते हैं अरमानों के पंख दिल के मैदानों मे,
नादाँ है जो उन्हें खरीदने किसी दुकान तक पहुंचे;
ले चलें बुलंदियों तक इसे कि इस का ये हक है,
इस से पहले ये ज़िंदगी अपनी ढलान तक पहुंचे;
खुदा कि रहमत तब होगी जब खुद से ज़हमत होगी ,
उस को कहाँ फुरसत कि वो हर इंसान तक पहुंचे;
इक सपना सुबह से मांगें....
इक सपना सुबह से मांगें,
और पलकों पे उस को टांगें,
दिन भर उसे धुप मे सेंकें,
फिर रात मे उस को देखें;
इक मीठा सा नग्मा चख कर,
कुछ पल उसे दिल मे रख कर,
उसे सरगम मे नेहलायें,
फिर होठों पे फेहरायें;
जब तनहा लगें ये रातें,
तब चांद से कर के बातें,
हम तारों को लायें नीचे,
और रंगों से उनको सींचें;
हम जेब मे ले के उम्मीदें,
कुछ खुशियाँ जहाँ से खरीदें,
फिर नींद मे उनको घोलें,
और रख के सिरहाने सो लें;
और पलकों पे उस को टांगें,
दिन भर उसे धुप मे सेंकें,
फिर रात मे उस को देखें;
इक मीठा सा नग्मा चख कर,
कुछ पल उसे दिल मे रख कर,
उसे सरगम मे नेहलायें,
फिर होठों पे फेहरायें;
जब तनहा लगें ये रातें,
तब चांद से कर के बातें,
हम तारों को लायें नीचे,
और रंगों से उनको सींचें;
हम जेब मे ले के उम्मीदें,
कुछ खुशियाँ जहाँ से खरीदें,
फिर नींद मे उनको घोलें,
और रख के सिरहाने सो लें;
Thursday, January 3, 2008
कभी हम...
कभी हम दिल से कहते हैं,
कभी खामोश रहते हैं,
तेरी चाहत में भीगे लफ्ज़,
कभी आंखों से बहते हैं:
कभी हम गुनगुनाते हैं ,
कभी सपने सजाते हैं,
तेरा ख्याल जब आये,
तभी हम मुस्कुराते हैं:
कभी तुम मेरी यादों को घर अपने बुला लेना,
मेरे ख्वाबों को तुम अपनी आंखों में सुला लेना,
तनहा सी मेरी साँसे बस यूं ही भटकती हैं,
कभी तुम अपनी खुशबू को ज़रा इनसे छुला लेना ;
कभी खामोश रहते हैं,
तेरी चाहत में भीगे लफ्ज़,
कभी आंखों से बहते हैं:
कभी हम गुनगुनाते हैं ,
कभी सपने सजाते हैं,
तेरा ख्याल जब आये,
तभी हम मुस्कुराते हैं:
कभी तुम मेरी यादों को घर अपने बुला लेना,
मेरे ख्वाबों को तुम अपनी आंखों में सुला लेना,
तनहा सी मेरी साँसे बस यूं ही भटकती हैं,
कभी तुम अपनी खुशबू को ज़रा इनसे छुला लेना ;
Subscribe to:
Posts (Atom)