Tuesday, January 8, 2008

दर्द झांकता है...

ज़िंदगी से थकी हुई आँखों को मींच कर,
दर्द की शाखों को आंसुओं से सींच कर,
रोज़ रात, रात को, रात भर जागता है,
पलकों से भीगा हुआ दर्द झांकता है;

यादों की गठरी मे मुस्काने समेट के,
ख्वाबों कि चादर मे ग़म को लपेट के,
वक़्त की खूँटी पे तकदीर टागता है,
भीतर से बिखरा हुआ दर्द झांकता है;

मायूसी को हौसले के खिलोने से बेहलाकर,
बेबसी के हाथों को बाज़ार मे फैला कर,
ज़ख्मों को सहलाने की भीख मांगता है
जिस्म से छिला हुआ दर्द झांकता है;

1 comment:

डॉ 0 विभा नायक said...

kya khoob likhte hain aap, orkut par aap hi jaise samajhdaar lekhenee vaalain ho, to phir maza hee na aa jaai.....bahut achchha laga apka blog padhkar..... shephalik.naik