कर्जों की आशनाई मे हालात ये हुए ,
होठों पे अब हंसी भी बस उधार की खिलती है;
नुक्कड़ के दर्जी मेरे सब दोस्त बन गए,
कि इज्ज़त फटी हुई उसी दुकान पे सिलती है;
नज़र आती हैं आपको जो बुलंद इमारतें,
तंगी के ज़लज़लों से उनकी बुनियादें हिलती हैं;
पैबंद लगी जेब मेरी शर्मिंदा सी रहती है,
ज़माने की तल्खियों से उसकी खवाहिशें छिलती हैं
लगती है घर पे मेरे महफिल मुफलिसी की,
जितनी चाहे ले लो ख़ुशी मुफ्त मे मिलती है;
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