Sunday, September 21, 2008

कोई ज़रूरी तो नही....

हर ग़म को अपने गले लगाना कोई ज़रूरी तो नही,

आँखों से आंसू पल पल गिराना कोई ज़रूरी तो नही,

दर्द हजारों रह सकते हैं इस दिल की आहों मे छुप कर,

चेहरे पे उनकी नुमाइश लगाना कोई ज़रूरी तो नही,

अपनी इबादतों पे यकीं करता हूँ मैं बस इतनी ख़बर है,

खुदा का मुझ पर मेहर लुटाना कोई ज़रूरी तो नही,

अपनी मंजिल का तो पता पूछ ही लूँगा अंधियारे से,

धुप का मेरी राह चमकाना कोई ज़रूरी तो नही,

वक़्त सहला के कर देता है सारे ज़ख्मों का इलाज,

बातों का उनपे मरहम लगाना कोई ज़रूरी तो नही,

हकीकतों की ज़मीं पे गहरी नींद सो लेता हूँ मैं ,

ख्वाबों की इसपे चादर बिछाना कोई ज़रूरी तो नही,

उम्र के इस मुकाम पे जो खुदगर्ज़ हो चले हैं,

उन रिश्तों का बोझ उठाना कोई ज़रूरी तो नही,

Sunday, August 31, 2008

नज़र आता है......

क्यूँ नही चेहरे पे मेरे ग़म नज़र आता है,
क्या करें लोगों को थोड़ा कम नज़र आता है,

निगाहें बयां कर देती हैं इंसान की फितरत,
शकल से तो हर शख्स हमदम नज़र आता है,

मायूसियों की धुप है, उदासियों की बारिश,
ये तो कोई नया ही मौसम नज़र आता है,

शायद सारी रात रोये हैं ये सपने जाग के,
आँखों का बिछौना कुछ नम नज़र आता है,

ये ज़ख्म तुम्हारी ओर बड़ी उम्मीद से देखते हैं,
बातों में तुम्हारी इन्हें मरहम नज़र आता है,

अपनी इबादतों पे फ़िर से यकीन कर के देखें,
इनके हौसले में अब भी दम नज़र आता है,

Tuesday, August 26, 2008

ज़रा सी ज़हमत और सही...

जुबान पे ला के रिश्ते को रुसवा नही करना ,
जहाँ से नज़रें चुरा के निगाहों से उतरना,

थक के मेरे सीने में जा सो गया है वो,
उस दर्द पे पाँव रख के तुम अब न गुज़रना,

ऑंखें न बन सकेंगी अब उनकी मेज़बान,
कह दो अपने ख्वाब से वो आए इधर न,

बरसों से दिल में फक्र से रहते थे जो लम्हे, ,
अब ख़ुद ही चाहते है वो खुल के बिखरना,

अब वहां पे कोई मेरा आशियाँ नही,
यादों के शहर जाके कहीं और ठहरना

Monday, August 18, 2008

नई सुबह

आज सुबह से पुछा मैंने इतना क्यूँ मुस्काती हो,
रोज़ रोज़ इक नई ज़िन्दगी कहाँ से ले कर आती हो,

कभी तो लाये धुप सुनहरी कभी रुपहले बादल तू,
और कभी फ़िर ओढ़ के आए सतरंगी सा आंचल तू,

कभी हवा में छिपा के खुशबु फूलों तक ले जाती हो,
और रंग फूलों के चुरा के घर घर तुम पहुंचाती हो,

कभी चहकती नदी में बहती आशाओं की नाव बने,
कभी निराशाओ के पल में उम्मीदों की छाँव बने

कभी ओस की चादर बन तुम अंधियारे ढक लेती हो,
और रौशनी को उसकी आज़ादी का हक देती हों

इन आँखों से नींद उड़ा के सपने तुम भर देती हो,
उन सपनो को राह दिखा कर पल में सच कर देती हो

Wednesday, July 23, 2008

जो आप हमें न मिलते...

मेरे अरमानों के कदम तो ख़ुद से कभी न हिलते,

कुछ अलग जिंदगी हो जाती जो आप हमें न मिलते,

ना कुछ पाने की चाहत और न कुछ खोने की चिंता,

न रातों को जाग जाग मैं अपनी धड़कन को गिनता,

छूट के मेरे हांथों ये पल ना राहों में बिखरते,

उन सारे लम्हों को भला क्यों ढूंढ ढूंढ मैं बिनता,

यादों के धागों से तन्हाई के ज़ख्म न सिलते,

कुछ अलग जिंदगी हो जाती जो आप हमें न मिलते,

न चाहत के के दिए चमक कर इन आँखों में जलते,

उजाले से सपने आकर ना इन आँखों में पलते,

ना सुबह और रात के दरम्यान इतनी दूरी होती,

उमर गुज़र जाती पूरी इक दिन के ढलते ढलते,

लफ्जों के ये फूल मेरे इन होठों पे ना खिलते,

कुछ अलग जिंदगी हो जाती जो आप हमें ना मिलते,

सपने पकते हैं...

थक कर के उम्मीद कहीं सो जाती हैं,
खामोश सदायें शोर में खो जाती हैं,
हँसते हैं जब ग़म हमारी हालत पे,
खुशियाँ पलकों के पीछे रो जाती हैं,

भीगी आँखों से किसी की राह तकते हैं,
आंसुओं की गर्मी में ही सपने पकते हैं,

हौसले मौजों के जब साहिल पे रुकते हैं,
अंधेरों से डर कर के साए भी छुपते हैं,
जिन ज़ख्मों ने ओढी थी वक्त की चादर,
यादों के झोंके आने से वो भी दुखते हैं,

दिल से आँखों की तरफ़ कुछ ज़ख्म सरकते हैं,
आंसुओं की गर्मी में ही सपने पकते हैं,

ये दर्द आख़िर क्यूँ इतनी तकलीफें सहता है,
ख़ुद से ही सहमा सा चुप चाप रहता है,
झांकता है होठों से कभी आह ये बनकर,
या फ़िर बनकर इल्तिजा आँखों से बहता है,

लफ्ज़ इसको अपनाने में क्यूँ झिझकते हैं
आंसुओं की गर्मी में ही सपने पकते हैं,

तू जो कहे तो,

तू जो कहे तो अपनी ऑंखें ग़म से तेरे नहला दूँ मैं,
तेरे दुखते सपने अपनी पलकों से सहला दूँ मैं,
तनहा तनहा दिल जो तेरा खोया है किस उलझन में,
अपने दिल के पास बिठा कुछ देर उसे बहला दूँ मैं,

तू जो कहे तो तेरी उदासी थाम लूँ अपने हाथों से,
दर्द को तेरे कुछ समझाऊँ प्यार भरी इन बातों से,
चमकीली सी धूप कभी जो चहरे को सताए तो,
चांदनी का आँचल तब मैं मांग के लाऊं रातों से,

तू जो कहे तो बातों को तेरी अपनी जुबान से जोडू मैं,
अपनी मुस्कानों को तेरे लबों की तरफ़ अब मोडू मैं,
अपने मन के सूनेपन तक इनको तुम आ जाने दो,
तेरी खामोशी को अपने लफ्जों से फ़िर तोडू मैं,